भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
यूँ अपने दिल को बहलाने लगे हैं / अमित शर्मा 'मीत'
Kavita Kosh से
यूँ अपने दिल को बहलाने लगे हैं
लिपटकर ख़ुद के ही शाने लगे हैं
हमें तो मौत भी आसां नहीं थी
सो अब ज़िंदा नज़र आने लगे हैं
उदासी इस क़दर हावी थी हम पर
कि ख़ुश होने पर इतराने लगे हैं
सलीक़े से लिपटकर पाँव से अब
ये ग़म ज़ंजीर पहनाने लगे हैं
ग़मों की धूप बढ़ती जा रही है
ख़ुशी के फूल मुरझाने लगे हैं
जो देखी इक शिकारी की उदासी
परिंदे लौट कर आने लगे हैं
फ़क़त अब चंद क़दमों पर है मंज़िल
मगर हम हैं कि सुस्ताने लगे है