भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

यूँ खड़ा है सोच में डूबा वो छोटा- सा दरख़्त/ तलअत इरफ़ानी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


यूँ खड़ा है सोच में डूबा वो छोटा- सा दरख़्त
जानता हो जैसे सब मंसब हवाओं का दरख़्त

इक बिरहना चीख़् सन्नाटे पे थी सू महीत,
गुम्बदे शब में खडा था दूर तक तन्हा दरख़्त


हांफता सेहरा ज़मी पर करवटेँ लेने लगा,
चार छे पत्तों पे अटका रह गया सूना दरख़्त


चाँद तो शायद उफ़ुक से लौट भी आता मगर,
बन चुका था अपने ही साये का ख़ुद साया दरख़्त


धड़- धड़ा कर गिर पड़ा बारिश में सारा ही मकां,
बच गया आँगन में चीलों को सदा देता दरख़्त


शेअर तलअत ज़िंदगी से हम को यूँ हासिल हुए,
जैसे मिटटी से गिज़ा पाता है जंगल का दरख़्त