यूँ जवानी खो रहा है आदमी
जानवर ही हो रहा है आदमी
पेट की खातिर सुनो इस धूप में
आदमी को ढो रहा है आदमी
रोशनी को क़त्ल करके, रात में
दाग़ अपने धो रहा है आदमी
पीढ़ियाँ फिर-फिर उगेंगी जूझती
ख़ून अपना बो रहा है आदमी
अब सृजन के गीत गाओ, अग्निकण!
फिर जगे जो सो रहा है आदमी