भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
यूँ तिरछी नज़र से सहम देखता है / बलजीत सिंह मुन्तज़िर
Kavita Kosh से
यूँ तिरछी नज़र से सहम देखता है ।
क्या जाने वो मुझमें अहम[1] देखता है ।
चुराता है उसका कोई चैन नित ही[2],
वो अपनी वफ़ा पे वहम देखता है ।
फ़कत मैं नहीं हूँ असीरे तजल्ली[3],
मेरे संग दीया भी अलम[4] देखता है ।
वो बीती किताबों मैं तितली या गुल की,
बजाय पुरानी नज़्म देखता है ।
क्यूँ हलके से लेता है मेरी इनायत[5],
क्यूँ होके मुझे खुशफ़हम देखता है ।
मुझे क्या पता था के मुझ सुर्खरू[6] मैं,
वो इक चाँदनी दम-ब-दम देखता है ।
नहीं उसको कुछ भी मलाल[7] अब किसी से,
वो अपनी खताएँ[8] पैहम[9] देखता है ।
कभी अपने दिल की गिरह[10] खोलता है,
कभी मुझमें वो पेचोखम[11] देखता है ।