भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

यूँ तिरछी नज़र से सहम देखता है / बलजीत सिंह मुन्तज़िर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यूँ तिरछी नज़र से सहम देखता है ।
क्या जाने वो मुझमें अहम<ref>महत्वपूर्ण</ref> देखता है ।

चुराता है उसका कोई चैन नित ही<ref>रोज़ाना</ref>,
वो अपनी वफ़ा पे वहम देखता है ।

फ़कत मैं नहीं हूँ असीरे तजल्ली<ref>रौशनी मैं क़ैद, रौशनी से परेशान</ref>,
मेरे संग दीया भी अलम<ref>अन्धेरा</ref> देखता है ।

वो बीती किताबों मैं तितली या गुल की,
बजाय पुरानी नज़्म देखता है ।

क्यूँ हलके से लेता है मेरी इनायत<ref>कृपादृष्टि</ref>,
क्यूँ होके मुझे खुशफ़हम देखता है ।

मुझे क्या पता था के मुझ सुर्खरू<ref>कामयाब, सफल</ref> मैं,
वो इक चाँदनी दम-ब-दम देखता है ।

नहीं उसको कुछ भी मलाल<ref>नाराज़गी</ref> अब किसी से,
वो अपनी खताएँ<ref>गलतियाँ</ref> पैहम<ref>लगातार, निरन्तर</ref> देखता है ।

कभी अपने दिल की गिरह<ref>गाँठ</ref> खोलता है,
कभी मुझमें वो पेचोखम<ref>उलझनें, मोड़</ref> देखता है ।

शब्दार्थ
<references/>