यूँ तो इक ज़माने से, बे-रफ़ीक़ो तन्हा हूँ / रमेश तन्हा
यूँ तो इक ज़माने से, बे- रकीफो-तन्हा हूँ
विर्दे-हर-ज़बां हूँ मैं, शहर भर का चर्चा हूँ।
मुझ से मिल के हर कोई, सर पकड़ के रह जाये
जो कहीं नहीं जाता, मैं वो बंद रस्ता हूँ।
आइना मगर ऐसा कुछ भी तो नहीं कहता
लोग मुझ से कहते हैं मैं भी एक चेहरा हूँ।
खींचते हो हर जानिब किस लिए लकीरें सी
मैं न कोई रावण हूँ मैं न कोई सीता हूँ।
भाग कर कहां जाऊं किस जगह अमां पाऊं
पत्थरों की बस्ती में मैं ही एक शीशा हूँ।
सिरफिरी हवाएं अब, छेड़ छेड़ जाती हैं
जो शजर को छोड़ आया, मैं वो ज़र्द पत्ता हूँ
मज़हरे-रऊनत हूँ, लेकिन इस से क्या हासिल
मैं हुजूमे-तिफलां में, सांप का तमाशा हूँ।
देखना अगर चाहो खुद को देख लो मुझ से
मैं मिजाज़े-दौरां का ,आइना सरापा हूँ।
तिश्ना-ए-समाअत हूँ, दश्त में सदाओं के
बात को तरसता हूँ, गुंग हूँ न बहरा हूँ।
देख लो अभी मुझको फिर न देख पाओगे
मैं हवा के नर्गे में, एक अब्र-पारा हूँ।
इक अबोध बालक के हाथ पड़ गया हूँ मैं
मैं भी ज़ात पर उनकी तंज़ करता रहता हूँ।
लोग ख्वाह कुछ बोलें, कोई नाम दें मुझको
मैं रमेश तन्हा था मैं रमेश तन्हा हूँ।