भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

यूँ देख मेरे दीदा-ए-पुर-आब की गर्दिश / मोहम्मद रफ़ी 'सौदा'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यूँ देख मेरे दीदा-ए-पुर-आब की गर्दिश
दरिया में हो जिस तरह से गिर्दाब की गर्दिश

मरता हूँ तेरे वास्ते रोता हूँ ज़िबस यार
है सैल मेरी चश्म में गिर्दाब की गर्दिश

फिर जाती हैं इस तरह से इक पल में वो अंखियाँ
जूँ बज़्म में हो जाम-ए-मय-ए-नाब की गर्दिश

अज़-बस के है आँखों में ख़ुमार उस घड़ी साक़ी
मय माँगे है तुझ से जो हर अहबाब की गर्दिश

गो ख़ाक हुआ तो भी फिरा बन के बगूला
हो कर न गई आशिक़-ए-बेताब की गर्दिश

जिंस-ए-खिरद-ओ-सब्र बिन इस दिल को हो क्या चैन
मुफ़लिस को बुरी होती है अस्बाब की गर्दिश

दिल ज़ुल्फ़-ओ-रूख़-ए-यार में ‘सौदा’ न फिरे क्यूँ
ख़ुश आए है उस को शब-ए-महताब की गर्दिश