भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

यूँ न मिटाईए /रमा द्विवेदी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


अजन्मी भ्रूणी बेटी को यूँ न मिटाईए।
मुझे मारर्ने से पहले कुछ तो विचारिए॥

बेटी का प्यार है अपार माँ-बाप के लिए,
राखी के तन्तुओं से बंधा प्यार भाई के लिए।
हर रिश्ते की धुरी में बेटी को पाईए।

संतुलन बिगड़ रहा बेटी को खोने से,
जुल्म और भी बढ़ेगें बेटी के नहीं होने से।
सृष्टि के संतुलन को कुछ तो संभालिए।

करता है अंग-भंग जब चाकू से डाक्टर,
डर-डर के चीखती है माँ-माँ पुकार कर,
करती है आर्तनाद पापा बचाईए ।

मुझसे हुई ख़ता क्या जो माँ रूठ तू गई,
मिलने से पहले ही तू मुझसे दूर हो गई,
अपने ही प्रतिरूप को यूँ न संहारिए।