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यूँ न सुलझेगी उलझी लड़ी / महावीर प्रसाद ‘मधुप’

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यूँ न सुलझेगी उलझी लड़ी
मत लगा आँसुओं की झड़ी

ग़म की दीवार हो जब खड़ी
हौंसला चाहिए हर घड़ी

पास हिम्मत के टिकती नहीं
हर मुसीबत बड़ी से बड़ी

लुट न जाएँ बहारें कहीं
रखना गुलशन पर नज़रें कड़ी

सो गए घर के मालिक अगर
धर में होगी बड़ी गड़बड़ी

बेईमानों की बस्ती है ये
रोज़ होती है धोखधड़ी

नाख़ुदा ने की योद-ख़ुदा
नाव भँवरों मे जब जा पड़ी

रात पूनम की फिर आ गई
आढ़ चूनर सितारों जड़ी

रंज का ख़त्म माहौल हो
छोड़ ऐसी कोई फुलझड़ी

शान महफ़िल की तुझसे ‘मधुप’
तेरी ग़ज़लंे है दिलकश बड़ी