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यूँ बहुत देर से पलकों पर गिरा कर आँखें / कुमार नयन
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यूँ बहुत देर से पलकों पर गिरा कर आँखें
जाने क्या देख रही हैं मिरे अंदर आँखें।
टूटकर आज मिरे दुख की है बदली बरसी
पास आईं जो मिरे तेरी समुंदर आंखें।
मुस्कुराहट न कभी अश्क़ के क़तरे टपके
जाने कब दे ये हुई है मिरी पत्थर आंखें।
कब तलक आग को पानी के यहां रक्खोगे
पूछती रहती हैं मुझसे मिरी अक्सर आंखें।
ख़्वाब तो कब के गये नींद भी अब गायब है
साज़िशें रच के बनाई गईं बंजर आंखें।
जागकर नीम उजाले में रफ़ू करती हैं
कितनी अंजान हैं ख़तरों से ये सुन्दर आंखें।
रौशनी लूटने वालों को ये मालूम नहीं
माँ क़सम डर है न बन जाएं ये खंज़र आंखें।