यूँ मैंने झूठ कहना शुरू किया / गिरिराज किराडू
यूँ मैंने झूठ कहना शुरू किया
दिसम्बर की एक सुबह
तुमने कोहरे में आकाश की ओर उछाल भरी
और मेरे सितारे गर्दिश में आने की शुरुआत हुई
उसी दिन बहुत देर तक फायरिंग की आवाज़ की तरह सुनाई दी थी संसार की आवाज़
मैं छत पर ऐसे बैठा था जैसे तहखाने में फँसे-फँसे कई बैठे हों
कोहरे में छलावे-सी उस उछाल में
तुम्हारे हाथ किसी और के हो गए
पांव इतने ऊँचे खो गए कि तीन साल बाद मेरी छाती पर गिरे
चेहरा एक लपट जिसमें उसी के नक्श भस्म हो गए
और शरीर कोई हिरण जिसके पीछे भटकते
मैं कुँए में कूद कर प्यासा मरा
उसी दिन गिनने की कोशिश की थी
एक दिन में कितने विमान गुजरते हैं घर के ऊपर से
तो दिसम्बर की उस सुबह
तुमने कोहरे में ऐसे छलांग भरी मानो
पृथ्वी पर रहते हुए ऊब गई हो
उसी शाम फटा था एक बम जिसके छर्रे अशोक भाई को न लगे होते तो भी वे
फ़ोन पर उतना ही फूट-फूट कर रोए होते उन्हें यकीन था किसी विमान से गिरा
था वो कोई रख कर नहीं गया था उसे
यूँ मैंने झूठ कहना शुरू किया