यूँ वो ज़ुल्मत से रहा दस्त-ओ-गरेबाँ यारो / हबीब जालिब
यूँ वो ज़ुल्मत से रहा दस्त-ओ-गरेबाँ यारो
उससे लर्ज़ां थे बहुत शब के निगहबाँ यारो
उसने हर-गाम दिया हौसला-ए-ताज़ा हमें
वो न इक पल भी रहा हम से गुरेज़ाँ यारो
उसने मानी न कभी तीरगी-ए-शब से शिकस्त
दिल अन्धेरों में रहा उस का फ़रोज़ाँ यारो
उसको हर हाल में जीने की अदा आती थी
वो न हालात से होता था परेशाँ यारो
उसने बातिल से न ता-ज़ीस्त किया समझौता
दहर में उस-सा कहाँ साहब-ए-ईमाँ यारो
उसको थी कश्मकश-ए-दैर-ओ-हरम से नफ़रत
उस-सा हिन्दू न कोई उस सा मुसलमाँ यारो
उसने सुल्तानी-ए-जम्हूर के नग़्मे लिक्खे
रूह शाहों की रही उस से परेशाँ यारो
अपने अशआ'र की शम्ओं' से उजाला कर के
कर गया शब का सफ़र कितना वो आसाँ यारो
उसके गीतों से ज़माने को सँवारें यारो
रूह-ए-'साहिर' को अगर करना है शादाँ यारो