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यूँ ही कब तक ऊपर ऊपर देखा जाए / अहमद महफूज़

यूँ ही कब तक ऊपर ऊपर देखा जाए
गहराई में क्यूँ न उतर कर देखा जाए

तेज़ हवाएँ याद दिलाने आई हैं
नाम तेरा फिर रेत पे लिख कर देखा जाए

शोर हरीम-ए-ज़ात में आख़िर उट्ठा क्यूँ
अंदर देखा जाए के बाहर देखा जाए

गाती मौज़ूँ शाम ढले सो जाएँगी
बाद में साहिल पहले समंदर देखा जाए

सारे पत्थर मेरी ही जानिब उठते हैं
उन से कब 'महफ़ूज़' मेरा सर देखा जाए