Last modified on 12 जून 2010, at 12:21

यूँ है कि... / गोबिन्द प्रसाद

यूँ है कि

मेरे सामने बैठा है कोई
मोम की शक्ल में ढल कर
बरसता हुआ बूँद-बूँद

ऐसे में
होना चाहता हूँ शीशा दिल
(मगर कहाँ से लाऊँ मैं वो शफ़्फ़ाक दिल)

गुज़रना
नदियाँ
जैसे गुज़र रही हैं
चुपचाप

सदियाँ
है अभी
इन अनलिखे कागज़ों में

धूप
बाकी है अभी
शिकस्ता साज़ में गोया

आवाज़
बाकी है अभी