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यूनेस्को की गाड़ी / अरविन्द श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
किसी भीड़ भरे बाज़ार में या किसी
सुदूर देहात की कच्ची सड़कों पर ‘यूनेस्को’ लिखी गाड़ी
देखता हूँ जब भी, सोचता हूँ
अन्दर गंभीर सा दिखने वाला आदमी
रुपयों भरा थैला लेकर तलाश रहा है मुझे
डायरेक्ट ‘मैन टू मैन’ बाँटना चाहता है
खर्चा-पानी
मोहभंग हो चुका है उनका सरकारी मिशनरी से
क़िस्म-क़िस्म के घोटालो की ख़बरों से
आजिज है वह
उठ गया है उनका भरोसा एन०जी०ओ० से
वह तलाश रहा है मुझे
बाढ़-पीड़ित होने के कई प्रमाण सहेज रखे है मैने
जिनेवा और कोपेनहेगन की फ़ंडो के लिए
चाहता हूँ मैं उससे कुशल-क्षेम बतियाना
अपनी क़ाबिलियत की कुछ टिप्स देना
अक्सर यही होता है
जब भी नज़र आती है
यूनेस्को की गाड़ी
चन्द ही लम्हों में हो जाती है
आँखों से ओझल !