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यूरोप के प्रति. / सुकान्त भट्टाचार्य

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वहाँ अभी मई का महीना है, बर्फ़ के गलने के दिन,
यहाँ आग बरसाता वैशाख है, निद्राहीन।
शायद वहाँ शुरू हो गई है मंथर दक्खिनी हवा,
यहाँ वैशाखी लू के थपेड़े धावा बोलते हैं।
यहाँ-वहाँ फूल उगते हैं आज तुम्हारे देश में,
कैसे-कैसे रंग, कितनी विचित्र रातें देखने को मिलती हैं,
सड़कों पर निकल पड़े हैं कितने लड़के-लड़कियाँ घर छोड़ कर
इस वसन्त में, कितने उत्सव हैं, कितने गीत गाए जा रहे ।
यहाँ तो सूख गए हैं फूल, मटमैली धूल में;
चीख़-पुकार करता है सारा देश, चैन ख़त्म हो चुका है,
कड़ी धूप के डर से लड़के-लड़कियाँ बन्द हैं घरों में,
सब ख़ामोश : शायद जागेंगे वैसाखी तूफ़ान में,
बहुत मेहनत, बहुत लड़ाई करने के बाद ।
चारों ओर क़तार-दर-क़तार हैं तुम्हारे देश में फूलों के बा़ग़,
इस देश में युद्ध, महामारी, दुर्भिक्ष जलता है हड्डी-हड्डी में,
इसीलिए आग बरसाते ग्रीष्म के मैदान में छीन लेती है नींद
बेपरवाह प्राणों को; आज दिशा-दिशा में लाखों-लाख लोग होते हैं इकट्ठा --
तुम्हारे मुल्क में मई का महीना है, यहाँ तूफ़ानी वैशाख ।

मूल बंगला से अनुवाद : नीलाभ