भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ये अपना मिलन जैसे इक शाम का मंज़र है / ‘अना’ क़ासमी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ये अपना मिलन जैसे इक शाम का मंज़र है,
मैं डूबता सूरज हूँ तू बहता समन्दर है ।

सोने का सनम था वो, सबने उसे पूजा है,
उसने जिसे चाहा है वो रेत का पैकर है ।

जो दूर से चमके हैं वो रेत के ज़र्रे हैं,
जो अस्ल में मोती है वो सीप के अन्दर है ।

दिल और भी लेता चल पहलू में जो मुमकिन हो,
उस शोख़ के रस्ते में एक और सितमगर है ।

दो दोस्त मयस्सर हैं इस प्यार के रस्ते में,
इक मील का पत्थर है, इक राह का पत्थर है ।

सब भूल गया आख़िर पैराक हुनर अपने,
अब झील-सी आँखों में मरना ही मुक़द्दर है ।

अब कौन उठाएगा इस बोझ को किश्ती पर,
किश्ती के मुसाफ़िर की आँखों में समन्दर है ।