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ये अपने पल/ रविशंकर पाण्डेय
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					ये अपने पल    
ये अपने 
बेहद अपने पल
क्यों इतने 
बेगाने बीते!	
एड़ी से चोटी तक कैसा
टंगा हुआ है
एक अपरिचय
दस्तक देता 
दरवाजों पर
शंकाओं , संदेहों का भय
भीड़ भरे इस महाद्धीप को
हम बतौर क्रूसो
हैं जीते!
साँसों का विनिमय
आलिंगन
और वेदना की
कुछ बूँदे,
नर्म छुवन की
गर्माहट को
याद करें हम,
आँखें मूंदे,
हिरनों की 
छलांग वाले दिन
अब अपंग
लावारिस रीते!
छालों भरा सफर एकाकी
जुआ जिंन्दगी का है काँधे
मन फिर भी
परिचित आहट के
इंतजार में हिम्मत बाँधे,
समा गयी,
पगध्वनि सुरंग में 
अवसादों के 
बिछे पलीते!
 
	
	

