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ये आबशार / रेशमा हिंगोरानी
Kavita Kosh से
सर-ए-रुख़सार
छलकती आँखें,
हुए आबाद वही
ख्वाब-ओ-ख़याल,
हुईं शादाब
पुरानी यादें...
अश्क हर एक कह गया मुझसे,
जो बातें दिल न कह सका तुझसे,
शब-ए-हिज्राँ की,
और फु़र्क़त की...
हुआ करती हैं
बातें फुर्सत की!
और फुर्सत हमें नसीब कहाँ?
कहाँ हासिल हमें वक़्त उतना,
है गुफ़्तगू का तकाज़ा जितना!
क़ैद महवर-ए-वक़्त हैं दोनों,
रहें मसरूफ इस क़दर दोनों...
कि मुलाक़ात, हर, अधूरी रहे,
हर एक बात, अनकही सी रहे...
मिलन को प्यासी रहीं,
प्यासी रहीं...
मगर हैं फिर भी छलकती आँखें!
18.08.93
(आबशार = जलप्रपात, वाटर-फ़ाल)