भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ये आलम शौक़ का देखा न जाए / फ़राज़
Kavita Kosh से
ये आलम<ref>दशा</ref>शौक़<ref>अभिलाषा</ref>का देखा न जाए
वो बुत है या ख़ुदा देखा न जाए
ये किन नज़रों से तूने आज देखा
कि तेरा देखना देखा न जाए
हमेशा के लिए मुझसे बिछड़ जा
ये मंज़र<ref>दृष्य</ref>बारहा <ref>बार-बार</ref>देखा न जाए
ग़लत है जो सुना पर आज़मा <ref>परख कर</ref>कर
तुझे ऐ बेवफ़ा <ref>जो वफ़ादार न हो</ref>देखा न जाए
ये महरूमी<ref> वंचितता असफलता</ref>नहीं पासे-वफ़ा है
कोई तेरे सिवा देखा न जाए
यही तो आश्ना <ref>परिचित</ref>बनते हैं आख़िर
कोई ना-आश्ना<ref>अपरिचित</ref> देखा न जाए
‘फ़राज़’ अपने सिवा है कौन तेरा
तुझे तुझसे जुदा<ref> अलग</ref> देखा न जाए
शब्दार्थ
<references/>