भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ये आवाज़ें कुछ कहती हैं-3 / तुषार धवल
Kavita Kosh से
इन बुलबुलों में दिन भर के परेशान शहर का शोर है
शहर अचानक शहर में निकल आता है और शहर थम जाता है
शहर की सहर जहाँ होती है
जिस पल के अन्दर उगा होता है उसका उजाला
वहीं पहुँचेगा निराशाओं के बाद एक दिन
एक दिन शहर बहुत खाँसेगा और उसके कण्ठ से निकल आएगी जली हुई वह कविता
उस दिन शहर रुक जाएगा कुछ देर
कुछ देर में बदल जाएगा
मकसदों का बेमकसद हो जाना बड़ी घटना है और उसी दिन धुरी बदलेगी
इस दौड़ की ---
मंज़िल भी मंज़िल नहीं है
इन बेमियाद तफ़सीलों का कहीं तो एक विराम है ही जहाँ से लौटेगी यह दौड़
नाभि की तरफ़