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ये आवाज़ें कुछ कहती हैं-4 / तुषार धवल

इस भगदड़ में छूटे हुए दिल अपाहिज हैं लाचार हैं
और सच के पंजे बहुरुपिए
इस दौर में
हम एक दूसरे की रण्डियाँ हैं
अपनी बिल से निकले कनखजूरे इन रंगीन बाज़ारों में
जहाँ हैसियत और इंसानियत दो अनजान पड़ोसी हैं

उनके अकेले भय फुसफुसाते हैं
इन सन्नाटों में
आवाज़ों के बुलबुलों में
शोर है गर्भ का