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ये आवाज़ें कुछ कहती हैं-5 / तुषार धवल
Kavita Kosh से
जब सभी मकसद हाथ आ चुके होंगे
उनका खोखलापन दिखेगा अधिक उचाट
जादू भरे उस हाथ तक दौड़ का मक़सद भी बे मक़सद हो जाएगा
नहीं पुल मत दो मुझे आसान अंजामों तक
मैं उतर कर जाऊँगा डूब कर जाऊँगा
मेरे सपनों में ज़िद है भूख है
और इन हज़ार सन्नाटों के लाखों बुलबुलों में उभर रही वे फुसफुसाहटें हैं मेरे पास
वे हज़ारों हारे हुए हाथ भी जो मुट्ठियों में तनना भूल गए हैं
मैंने मलबों को हटा कर देखा है मानव के उस जीवाष्म की आँखों में
जिनमे दया है लोभ पर टिकी हुई
असुरक्षित और तभी हिंसक
इन नीतियों के
फुटकर फलसफों पर
उनकी आँखों में अन्तहीन झुग्गियाँ हैं मेरे वर्तमान की