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ये उदासी से भरी बोझल फ़िज़ा / विनोद तिवारी

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यह उदासी से भरी बोझिल फ़िज़ा
हर तरफ़ फैली हुई ख़ामोशियाँ

सारी ख़ुशियाँकुछ घरों की मिल्कियत
आम जनता का मुक़द्दर तल्ख़ियाँ

ख़ौफ़ की वादी में इक लम्बा सफ़र
सो रहे हों जबकि मीरे-कारवाँ

दूर जंगल में कहीं उठता धुआँ
एक शोला काश आ सकता यहाँ

झील पर हक़ है हमारा भी हुज़ूर
कैसे कह सकती हैं छोटी मछलियाँ

इस इमारत में है हर जानिब दरार
बिल-शुबह बुनियाद में थीं ख़ामियाँ

जानता है आज हमको हर कोई
काम आई हैं महज़ रुस्वाइयाँ