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ये उम्मीदें कैसे न होंगी बदरंग यार / सांवर दइया
Kavita Kosh से
ये उम्मीदें कैसे न होंगी बदरंग यार!
आदमी खुद खड़ा जहां बिकने को तैयार!
उजालों की हद से दूर निकल चुके इतना,
सुबह-शाम है सिर्फ अंधेरे का इंतजार!
देख रहा हूं मैं कफ़ में गिरता खून यहां,
कैसे कहूं इनसे नहीं अपना सरोकार।
जमाने को हंसे एक जमाना बीत गया,
आजकल सूरत से लगता बेहद बीमार।
भूख के आंगन से हटाओ ये गंदे सिक्के,
गलियों को घर बनाओ, बंद करो बाजार!