भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ये औरतें / वंदना गुप्ता

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कहाँ ढूँढ रहे हो?
क्या कहा?
चूल्हे चौके की खिंचती हुई निवाड़ में
देहलियों के लीपने में
जहाँ लीप देती हैं वजूद की स्याहियां भी
और मुस्कुराकर उतार देती हैं जीने के कर्ज
दीवारों से झड़ते पलस्तर में
जिसकी कभी तुरपाई नहीं हो सकती
सिलबट्टे के शोर में
जहाँ पिस जाती हैं महीनता से
और करती हैं सुवासित तुम्हारा तन और मन
दाल के तडके में
जहाँ छौंक संग छुंक जाती हैं खुद भी
आटे के चोकर सा छीजने में
या फिर दबी सहमी घुटी दीवारों में
या उम्र के तहखानों में
जहाँ कैद की जाती हैं आवाजें
या फिर जिंदा कब्रिस्तानों में
जहाँ रेत दी जाती हैं
मूक बधिरों की भी गर्दनें बिना किसी गुनाह के
नहीं, अब नहीं मिलेंगी ये सिर्फ वहां
तुम्हारी सोच की चाबी जहाँ रूकती है
वहीँ से खोले हैं इन्होने ताले बिना चाबियों के
तौलिये सी नहीं होतीं इस्तेमाल अब
कपड़ों को पछीटने तक नहीं सिमटी है
अब इस मशाल की लौ
रूप रंग देह के शिथिल संदेश रुपी बदरा छाने तक ही
नहीं नाचते अब मन के मोर
नहीं मिलेंगी अब
गुनगुनी धूप की चोली में बंधी
बसंती बयार की उलझी लटों में अटकी
तीलियों से बन चुकी हैं तितलियाँ
और भर ली है उड़ान

खेत खलिहान से लेकर
अन्तरिक्ष के पायदान तक
मिलेगा उनका एक मुकम्मल जहान
जहाँ वो बीज रही हैं नयी सभ्यता
तुम्हारी सोच से इतर
रख कर तुम्हारी कुंठाओं पर पाँव
उन्होंने खुद खोदा है कुआँ
और बुझाया है
युगों से सुलगती प्यास का दावानल
यूँ ही नहीं पकडे हैं पहचान के प्रपत्र हाथ में
एक लम्बी लड़ाई थी और है अभी बाकि भी
मगर अब मत खोजना उन्हें सिर्फ
अपनी सोच के चारागाहों में ही
जहाँ बिना हथकड़ी बेड़ियों के भी
उम्रकैद गुजारने को मजबूर थीं
मुस्तैद हैं
सीमा प्रहरी सी अब
ये चाय की चुस्कियों संग
खेल कर रम्मी
नहीं करतीं अब जीवन भंग
क्योंकि जान गयी हैं
सिर्फ झाड बुहार तक ही नहीं है जीवन
धू धू कर जल धुआँ बन उड़ने से बेहतर है
कपूर बन करें सुवासित कण कण
बोलो, कहाँ कहाँ देखना चाहोगे?
या बता सकते हो
धरती से आकाश तक
कहाँ नहीं फहरा रहा इनका परचम
फिर कैसे चाहते हो
बांधकर देखना आँख पर पट्टी
अब नहीं मिलेंगी ये तुम्हें
तुम्हारी मनचाही
रूह को सुकूँ पहुंचाती सिसकती दरारों में
अब मिलेंगी ये तुम्हें
घर और बाहर की चौसर पर
अट्टहासों के समवेत स्वरों में
अपनी हर मर्यादा के साथ
अब मिलेंगी ये तुम्हें
हर उस जगह
जो हो तुम्हारी सोच से परे
जो सभ्यता और संस्कृति को बचाते हुए
भेद विभेद से परे
बना रही है एक समानांतर संसार
बस यही है
आज की खुद मुख़्तार आधुनिक औरत की मुकम्मल पहचान
ये औरतें
जो अपना पता जानती हैं
और अपने चेहरे और धड से भी हैं परिचित
भीड़ का हिस्सा नहीं
जो भटकने का हो खतरा

शताब्दियों की नींद टूट चुकी है आज