ये कालक क्यों नहीं जाती / अबरार अहमद
लिबास ए ज़र पहन रख्खा हो
चादर हो फ़क़ीरी की
बदन को ओढ़ रख्खा हो
कि दुबका हूँ लिहाफ़ों में
ये कालक, दाग़ है माथे का
दिल पर नक़्श है
इतराफ़ से उमड़ी हुई गाली है
गाली में छुपी तज़हीक है
इक ख़ौफ़ है
जो हर घड़ी गर्दिश में रहता है
नहूसत है
कहीं से काट देगी ज़िन्दगी का रास्ता
लहू में रोक है
कीचड़ है
उजले दिन के माथे पर
तबाही है
कोई बोहतान है
चुभता हुआ इक झूट है
बकवास है
नफ़रत का धारा है
उछलता है, मचलता है
कि पहनावे पे धब्बा है
बहुत मल-मल के धोता हूँ
ये कालक क्यों नहीं जाती
भला लगता है हर मलबूस मुझ को
चार सू रंगों का डेरा है
कई महताब हैं
जो तैरते हैं मेरी रातों में
चमक है ज़ाहिर ओ बातिन में
बहती है लहू बनकर
मगर फिर भी
कोई रंग ए मशिय्यत हो
कि नस्लों की रिआयत से
अता हो ज़िन्दगी के जब्र की
और ख़ून की निस्बत से हो
मक़्सूम इनसां का
वो कालक — क्यों नहीं जाती !