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ये किसी और ही अंदाज़ का दर लगता है / रंजना वर्मा

ये किसी और ही अंदाज़ का दर लगता है
यूँ तो अपना है मगर और का घर लगता है

जिंदगी यूँ तो दिखा देती है रस्ते सारे
फिर भी जैसे ये कोई अंधा सफ़र लगता है

रोज़ है बागे सबा जिसको जगाने आती
वो बगीचे का थका बूढ़ा शज़र लगता है

लोग कहते हैं कि इंसाफ़ किया है करता
खो गया हमको ख़ुदा जाने किधर लगता है

आज शैतान ने पायी है जगह दुनियाँ में
जो भी तूफ़ान उठे उसका क़हर लगता है

मुफ़लिसी का है ये आलम कि न पूछे कोई
पैर फैला दूँ तो दीवार से सर लगता है

कर के वादे जो वह अक्सर ही मुकर है जाता
हमको तो ये भी मुहब्बत का असर लगता है