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ये किस का नूर मिरी ज़िन्दगी पे छाया है / राजेंद्र नाथ 'रहबर'
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ये किस का नूर मिरी ज़िन्दगी पे छाया है
जिधर भी देखता हूँ हर तरफ़ उजाला है
घटा उठी है तो याद आ गई हैं वो ज़ुल्फें
खिला है फूल तो वो चेहरा याद आया है
वही सी चाल, वही सी अदा वही सा बदन
ये कौन उस सा मिरे सामने से गुज़रा था
तरस रही हैं तिरी दीद को मिरी आंखें
जो खाके-पा को तरसता है मेरा माथा है
ख़ुदा की बन्दगी हम इस लिए नहीं करते
किसी को हम ने ख़ुदा मान कर ही पूजा है
बसे हुए हो तुम्हीं तुम हमारी सोचों में
किसी को हम ने तुम्हारी सिवा न सोचा है।