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ये किस से आज बरहम हो गई है / महरूम

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ये किस से आज बरहम हो गई है
के ज़ुल्फ़-ए-यार पुर-ख़म हो गई है

टपक पड़ते हैं वक़्त-ए-सुब्ह आँसू
ये आदत मिस्ल-ए-शबनम हो गई है

ब-ज़ाहिर गरम है बाज़ार-ए-उल्फ़त
मगर जिंस-ए-वफ़ा कम हो गई है

ज़हे तासीर-ए-कू-ए-ख़ाक-ए-जानाँ
मेरे ज़ख़्मों पे मरहम हो गई है

बस ऐ दस्त-ए-अजल कुछ रहम भी कर
के दुनिया बज़्म-ए-मातम हो गई है

नहीं ख़ौफ़ शब-ए-हिज्राँ मुझे अब
मेरी ग़म-ख़्वार ओ हम-दम हो गई है

यही हालत है इक मुद्दत से 'महरूम'
तबीअत ख़ू-गर-ए-ग़म हो गई है