ये कैसा वजूद है मेरा / वंदना गुप्ता
1
गिलौरी दाँत में दबाये
जाने कैसे कह जाती हो तुम
वो जो कहा तो जाता है
मगर औचित्य कुछ नहीं होता उसका
क्योंकि बचता है जो
वो तो दबा होता है दाँत में
2
तुम्हारी ख़ामोशी के स्तम्भों पर पढता हूँ ताबीरें
जो कहीं भी लेखनीबद्ध नहीं होतीं
फिर भी वक्त के सशक्त हस्ताक्षर सी
दिखती हैं ख़ामोशी की सलवटों में
3
जो बचता है तुम्हारा अनकहा तुम्हारे पास
जाने क्यों
वो ही डंक मारा करता है अक्सर
मेरी खोजी प्रवृत्ति के वीरान शहरों को
4
सुलगती लकड़ियों की आँच
कभी दिखी भी तो नहीं देखनी चाही
और आज ढूँढता हूँ राख में चिंगारी
ये एक अदद कोशिश के शहतीर अक्सर
चुभा करते हैं साँसों में मेरी
फिर भी ज़िंदा हूँ यही अचरज है
5
तुम और तुम्हारा
वो कुचला मसला नेस्तनाबूद किया
एक अदद ख्वाबों का शहर
जाने क्यों उसी में
भ्रमण कर खोजना चाहता हूँ
भग्नावशेषों में कारण
जबकि जानता हूँ और मानता भी हूँ
कारण हूँ सिर्फ मैं
किसे भ्रमित कर रहा हूँ?
6
सुनो
तुम चुप ही रहना
तुम्हारा बोलना अखरेगा मुझे
तुम जानती हो
मेरे अहम् की तुष्टि के लिए
आह! कितनी आसानी से मान लिया तुमने
और आज यही विषबाण
मेरे लहू में घुस विषैला बना रहा है मुझे
और मैं खुरच खुरच कर निकाल रहा हूँ
दरो दीवार से लहू के निशाँ
मगर रक्तबीज से बढे जा रहे हैं
एक अहम् की तुष्टि की ये कीमत तो नहीं चाही थी
मगर पाला पड़ी फसलों में फूल नहीं उगा करते
7
ये तुम्हारा गुणगान नहीं
खुद को हितैषी सिद्ध करने की मंशा नहीं
बस हाथ में तलवार लेकर
ऊंगलियों से धार बनाने की कवायद भर है
जो तुम जानती हो
महज पागल का प्रलाप भर है
कभी यूं भी धारें बना करती हैं
जोखिम उठाने की क्षमता मुझमे नहीं
जाने क्यों फिर भी
क्या सिद्ध करना चाहता हूँ नहीं जानता
8
अंतिम पड़ाव पर ही
जाने क्यों अंतिम अरदासें हुआ करती हैं
उम्र तो एक रेगिस्तान में ही गुजरा करती है पानी की तलाश में
पता नहीं क्यों
उम्र भर की तलाश और नमी का स्रोता
अंतिम पड़ाव के ही शगल हुआ करते हैं
जहाँ मीठे पानी के चश्मे तो जरूर होते हैं
मगर प्यास के शहरों में पाले पड़े होते हैं
और तुम्हारी प्यास के शहर का पानी बनना
शायद ये भी मेरी एक ज़िद हुआ करती है
जहाँ दूर दूर तक कहीं रेत में ना नमी बची होती है
9
इश्क तो तुमने किया होता है
मैंने तो महज पासों को नया रूप दिया होता है
इश्क के इल्म की दीवारों पर
खुद को अंकित करने का
ये भी मेरा एक तहलकादायी प्रकरण हुआ करता है
10
क्योंकि
जानता हूँ खुद को
बस तुम्हें जानने के भ्रमों को
अपनी सहजता का प्रमाण बना
खुद के आईने साफ किया करता हूँ
जबकि चेहरा खुद का ही नज़र आता है
एक चतुर चालाक शिकारी सा
ये कैसा ध्रुवसन्धि काल है
जहाँ अब जरूरत नहीं
वहीँ अज़ान दिया करता हूँ
उत्तरकाण्ड लिखने का कोई औचित्य भी जरूरी होता है
और मेरे पास नहीं है कोई औचित्य
ना आरम्भ का ना अंत का
जाने क्यों फिर भी
किस निगाह से शर्मसार हुआ करता हूँ
जो ढकोसलों के शहरों में हथियार बन फिरा करता हूँ
जबकि
प्रयासों की घाटियों में सिर्फ और सिर्फ झाड़ खंखाड़ ही समाये होते हैं
11
तुम तरंगिनी सी
दस्तक नहीं देतीं
फिर भी दस्तक होती है
मगर
मेरे शहरों की दीवारें अभेद्य हैं
इसलिए
सुनकर भी न सुनने की आदत से मजबूर हूँ
ये कैसा वजूद है मेरा
आकलन कितना ही करूँ
परिणाम हमेशा अपने ही पक्ष में दिया करता हूँ