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ये कैसी रहगुज़र पर हम खड़े हैं / पुष्पेन्द्र ‘पुष्प’

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ये कैसी रहगुज़र पर हम खड़े हैं
मुसल्सल तीरगी के सिलसिले हैं

अजब विज्ञान की जादूगरी है
खला में लोग भी रहने लगे हैं

ज़माने को शिकायत हो रही है
मेरे अशआर सच कहने लगे हैं

अंधेरों से मोहब्बत हो गई है
उजाले आँख में चुभने लगे हैं

हमें हर तिश्नगी पहचानती है
कभी हम भी तो इक दरिया रहे हैं