ये कैसे-कैसे मसअले हैं सामने आने लगे / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
ये कैसे-कैसे मसअले हैं सामने आने लगे।
ऐसा न हो इतिहास फिर से ख़ुद को दोहराने लगे।
परचम घृणा के जबसे मीनारों पर लहराने लगे,
नारे सभी को ध्वंस के यारों बहुत भाने लगे।
मसरूफ हूँ करने में हल मैं ये पहेली आजकल,
बे-वक़्त कैसे चींटियों के पर निकल आने लगे।
कैसा ज़माना आ गया अचरज हमें भारी हुआ,
आवाज सुन कुत्तों की कैसे शेर थर्राने लगे।
बहसों ने आरक्षण का मुद्दा गर्म इतना कर दिया,
क्या आन्तरिक गृह यु़द्ध के आसार गहराने लगे।
फिलवक़्त ऐसे काम की ही तख्त से उम्मीद है,
जिससे हमारी सभ्यता जिन्दा नज़र आने लगे।
दिन रात खाये जा रहा मुझको ये पेचीदा सवाल,
क्या सच हमारा मुल्क पहरेदार लुटवाने लगे।
तामीर करते वक़्त घर की, चाहिए रखना खयाल,
नीची न छत इतनी रहे पगड़ी से टकराने लगे।
चोरी हुई ‘विश्वास’ लेकिन चोर पकड़ें कैसे हम,
जब चोर पकड़ो चोर पकड़ो चोर चिल्लाने लगे।