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ये कैसे बँटवारे ग़म के / संध्या सिंह
Kavita Kosh से
आँसू और मुस्कान मिले हैं
यहाँ किसी को बिना नियम के
ये कैसी तक़सीम सुखों की
ये कैसे बँटवारे गम के
कहीं अमीरी के लॉकर में
जाने कितने ख़्वाब धरे हैं
कहीं ग़रीबी के पल्लू में
सिक्का-सिक्का स्वप्न मरे हैं
जहाँ दिहाड़ी पर नींदें हों
वहीं फिक्र के डाकू धमके
कहीं कुतर्कों से ‘आज़ादी‘
नित्य नई परिभाषा लाती
कहीं रिवाजों के पिंजरे में
चिड़िया पंख लिए मर जाती
जहाँ भूख से आँत ऐंठती
वहीं पहाड़े हैं संयम के
जहाँ लबालब नदिया बहती
वहीं बरसते बादल आ कर
जहाँ धरा की सूखी छाती
धूप बैठती पाँव जमा कर
जहाँ थकी हो प्यास रेत में
वहीं भरम का पानी चमके
ये कैसी तक़सीम सुखों की
ये कैसे बँटवारे ग़म के