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ये कैसे सानिहे अब पेश आने लग गए हैं / विक्रम शर्मा
Kavita Kosh से
ये कैसे सानिहे अब पेश आने लग गए हैं
तेरे आगोश में हम छटपटाने लग गए हैं
बहुत मुमकिन है कोई तीर हमको आ लगेगा
हम ऐसे लोग जो पँछी उड़ाने लग गए हैं
हमारे बिन भला तन्हाई घर में क्या ही करती
उसे भी साथ ही ऑफिस में लाने लग गए हैं
बदन पर याद की बारिश के छींटे पड़ गये थे
पराई धूप में उनको सुखाने लग गए हैं
हवा के एक ही झोंके में ये फल गिर पड़ेंगे
ये बूढ़े पेड़ के कँधे झुकाने लग गए हैं
नज़र के चौक पे बारिश झमाझम गिर रही है
तो दिल के रूम में गाने पुराने लग गए हैं