ये कौन छोड़ गया इस पे ख़ामियाँ अपनी / द्विजेन्द्र 'द्विज'
ये कौन छोड़ गया इस पे ख़ामियाँ अपनी
मुझे दिखाता है आईना झुर्रियाँ अपनी
बना के छाप लो तुम उनको सुर्ख़ियाँ अपनी
कुएँ में डाल दीं हमने तो नेकियाँ अपनी
बदलते वक़्त की रफ़्तार थामते हैं हुज़ूर !
बदलते रहते हैं अकसर जो टोपियाँ अपनी
ज़लील होता है कब वो उसे हिसाब नहीं
अभी तो गिन रहा है वो दिहाड़ियाँ अपनी
नहीं लिहाफ़, ग़िलाफ़ों की कौन बात करे
तू देख फिर भी गुज़रती हैं सर्दियाँ अपनी
क़तारें देख के लम्बी हज़ारों लोगों की
मैं फाड़ देता हूँ अकसर सब अर्ज़ियाँ अपनी
यूँ बात करता है वो पुर-तपाक लहज़े में
मगर छुपा नहीं पाता वो तल्ख़ियाँ अपनी
भले दिनों में कभी ये भी काम आएँगी
अभी सँभाल के रख लो उदासियाँ अपनी
हमें ही आँखों से सुनना नहीं आता उनको
सुना ही देते हैं चेहरे कहानियाँ अपनी
मेरे लिये मेरी ग़ज़लें हैं कैनवस की तरह
उकेरता हूँ मैं जिन पर उदासियाँ अपनी
तमाम फ़ल्सफ़े ख़ुद में छुपाए रहती हैं
कहीं हैं छाँव कहीं धूप वादियाँ अपनी
अभी जो धुन्ध में लिपटी दिखाई देती है
कभी तो धूप नहायेंगी बस्तियाँ अपनी
बुलन्द हौसलों की इक मिसाल हैं ये भी
पहाड़ रोज़ दिखाते हैं चोटियाँ अपनी
बुला रही है तुझे धूप ‘द्विज’! पहाड़ों की
तू खोलता ही नहीं फिर भी खिड़कियाँ अपनी !