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ये कौन बिस्तरे शब से उठा सहर की तरह / नज़ीर बनारसी

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ये कौन बिस्तरे शब से उठा सहर की तरह
ये किसकी आँख खुली मैकदे के दर की तरह

भर आये आँख में आँसू न कर सके दीदार
हम अश्क बन के गिरे जब उठे नजर की तरह

जमाने भर की खबर रखते हैं वो दीवाने
भटकते रहते हैं जो खाके रहगुजर <ref>रास्ते की धूल</ref> की तरह

अगर दुरूस्त हो नीयत तो सजदा कर ऐ शेख़
मिरे सनम का भी घर है खुदा के घर की तरह

बिखेरे तो मुसीबत सँवारे आफत
बढ़ा है आपका गेसू भी दर्दे सर की तरह

कमाल देखो मुहब्बत से जलने वालों का
उधर भी आग लगाते रहे इधर की तरह

जलाओ नक्शे कदम से वहाँ भी चल के चरा़ग
अगर समझते हो घर मेरा अपने घर की तरह

अकेला छोड़ के जाओ न अब खुदा के लिए
हमेशा साथ रहे हो दिलो जिगर की तरह

न डूब जायें कहीं हम भी आफताब <ref>सूरज</ref> के साथ
’नजीर’ ढलने लगे हम भी दोपहर की तरह

शब्दार्थ
<references/>