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ये ख़ुशी ग़म-ए-ज़माना का शिकार हो न जाए / 'शमीम' करहानी
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ये ख़ुशी ग़म-ए-ज़माना का शिकार हो न जाए
न मिलो ज़ियादा हम से कहीं प्यार हो न जाए
जो मचल रही है शीशे में हसीन है वो शबनम
मिरे लब तक आते आते जो शरार हो न जाए
न कटें अकेले दिल से ग़म-ए-ज़िंदगी की राहें
जो शरीक-ए-फिक्र-ए-दौराँ ग़म-ए-यार हो न जाए
न बढ़ा बहुत चमन से रह-ओ-रस्म-ए-आशियाना
कि मिज़ाज-ए-बाग़-बाँ पर कहीं बार हो न जाए
तिरी ताज़ा मुस्कुराहट से भर आई आँख यानी
कहीं ये निशान-ए-मंज़िल भी ग़ुबार हो न जाए
जो क़रीब है किनारा तो बढ़ा है और तूफ़ाँ
कि ये सख़्त-जान कश्ती कहीं पार हो न जाए
इसी तरह ख़ून-ए-दिल से तू चमन को सींचता जा
ये ख़जाँ ‘शमीम’ जब तक कि बहार हो न जाए