भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ये खेतों पर खट रही है / केशव तिवारी
Kavita Kosh से
ये खेतों पर खट रही है
चट्टानों पर लटक कर
काट रही है घास
सिर पर लकड़ी का गट्ठर लिए
चढ़ रही पहाड़
मैंने कौसानी की सड़कों पर
नारे लगाते देखा इन्हें
इस सबसे विरक्त
शराब में टुन्न एक पुरुष
मेरे मित्र को
पहाड़ के पानी और जवानी
की कहावत सुना रहा है
निठल्ला, काहिल