भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ये ग़म के मारों को छल रही है / रंजना वर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ये ग़म के मारों को छल रही है
लो चाँदनी फिर टहल रही है

तड़प रहा दिल कि जैसे कोई
अधूरी ख़्वाहिश मचल रही है

चला गया तू है ज़िन्दगी से
ये आग फुरकत की जल रही है

तेरे मेरे दरमियाँ बची जो
वही है सूरत जो कल रही है

गरम हवाएँ जो कल तलक थीं
वही हवा अब भी चल रही है

नहीं चमन में है कोई रौनक
कि रुख फ़िज़ा भी बदल रही है

जो तीरगी से लड़ी थी अब तक
वो शम्मा भी अब पिघल रही है