ये चाँद है सहमा हुआ ख़ामोश नहीं है ।
ख़ामोश नज़र आता है ख़ामोश नहीं है ।।
इस सोई हुई राख के अम्बार के नीचे
लावा है चहकता हुआ ख़ामोश नहीं है ।
पेशानी<ref>माथा</ref> की वादी में पसीने का ये दरिया
अफ़्सूं<ref>जादू</ref> है छलकता हुआ ख़ामोश नहीं है ।
ग़ुंचों से ढलक जाती है चुपचाप जो शबनम
गिरिया<ref>आँसू</ref> है दहकता हुआ ख़ामोश नहीं है ।
ख़ामोशी से लबरेज़ नज़र आती है महफ़िल
एक सुर है चटख़ता हुआ ख़ामोश नहीं है ।।
7-7-1983
शब्दार्थ
<references/>