ये चीख़ चीख़ के कहता है तजरिबा मेरा / रमेश तन्हा
ये चीख चीख के कहता है तजरिबा मेरा
कहां रहा अभी खुद से भी राबिता मेरा।
ये फूल फूल से चेहरे, ये चांद तारे गगन
ज़मीं से ता-ब-फ़लक सब है सिलसिला मेरा।
जो दोस्ती नहीं करता तो दुश्मनी ही सही
मगर वो एक तअल्लुक जो तुझ से था मेरा।
हरेक बार था मैं उसकी दस्तरस से परे
हरेक लिया उस ने जायज़ा मेरा।
तलाश करता था वो मेरी ज़ात के डांडे
मगर न मिल सका उसको कोई सिरा मेरा।
वो जितना खैर से मेरे करीब आता रहा
कुछ और बढ़ता गया उस से फ़ासिला मेरा।
रसाई उसकी थी ता-कहकशां-ओ-हफ्त-अफ्लाक
मगर न हो सका उस से भी तजज़िया मेरा।
मैं हर महाज़ पे खुद ही से जंग करता हूँ
सदा मुझी से रहा है मुक़ाबिला मेरा।
मैं देखता रहा बन कर तमाम हैरत उसे
सवाल करता रहा मुझ से आइना मेरा।
थी मेरी पेश-रवी मुझ से दो क़दम आगे
था मुझ से पहले सरे-बज़्म तज़किरा मेरा।
न जलने देती हैं मुझको, न बुझने देती हैं
पड़ा है कैसी हवाओं से साबिका मेरा।
अब एक मैं ही तो बदनामे-शहर हूँ तन्हा
ये लोग पूछते फिरते हैं क्यों पता मेरा।
लो, मेरे सर पे भी रक्खा है वक़्त ने इनआम,
मिरा पता भी नहीं जानता पता मेरा।
ये मैं नहीं हूँ तो फिर और कौन है 'तन्हा'
ये किस का अक्स दिखाता है आइना मेरा।