ये ज़ंजीरें / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
पल-पल पीड़ा पहुँचाती हैं
घोर ग़ुलामी की ज़ंजीरें ;
मैंने खुद ही पहनी थी ये
बरसों पहले ।
ये न लोहे की न सोने की
न चाँदी न हैं हीरे की
ये हैं -
दो जून की रोटी ,दाल की
सुबह शाम की चार चाय की
एक छत की एक कोठरी ,
कापी-किताब की और फ़ीस की
मुना –मुन्नी के दूध की ।
घायल इनसे पाँव हो गए
मन भी लहूलुहान हो गया
जीवन का रस कहीं खो गया ।
उगता अंकुर कहीं सो गया
नस-नस में कोई ज़हर बो गया ।
अब काटूँ ,तब काटूँ इनको
जाने कब से सोच रहा था ।
इसी तरह बस शाम हो गई
मेरी उम्र तमाम हो गई ।
फ़िर भी थोड़ा-सा उजियारा
सोचा अपने नाम करूँ मैं
कुछ तो ऐसा काम करूँ मैं ।
मैंने काटी ये ज़जीरें
कितनी शीतलता अब मन में !
जान सका मैं आज शाम को
चलो जो हो गया अच्छा ही है
जीवन का घट कुछ हो गया रीता
जो बीता सो अच्छा बीता
कभी हार कभी जीत मिली
कभी नफ़रत कभी प्रीत मिली ।
इस मोड़ पर क्या पछताना
चलो चलें मंज़िल है पाना
जैसा भी हो जीभर गाना
जो मिल जाए उस पर हरषाएँ
जो न मिले क्यों रोना रोएँ
हम उन बीते –रीते पल का ।