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ये जो तुम मुझ पे ज़ुल्म ढाते हो / सिया सचदेव
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ये जो तुम मुझ पे ज़ुल्म ढाते हो
क्यों मेरा सब्र आजमाते हो
जल ना जाये कहीं तुम्हारे हाथ
तुम जो औरो के घर जलाते हो
इम्तिहान इश्क करने वालों का
ग़म के मारों को क्यों सताते हो
हम पे पहले भी लोग हस्ते है
क्यूँ तमाशा हमें बनाते हो
अपने आंसू का ग़म नहीं हमको
हम हैं खुश तुम जो मुस्कुराते हो
हारना जीत हैं मोहब्बत में
हार से फिर क्यों खौफ खाते हो
जब 'सिया' से नहीं कोई रिश्ता
क्यों उसे रोज़ याद आते हो