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ये जो दिख रहे हैं / उमा शंकर सिंह परमार
Kavita Kosh से
ये जो दिख रहे हैं
इच्छाधारी लोग हैं
जो लगातार अपनी कविताओं मे
पूँजीवाद का पुतला फूँक रहें हैं
शाम होते ही
अपने अपने खेमे मे लौटकर
पलायन का शोकगीत
गुनगुनाते हैं
हर एक आत्महत्या के बाद
समाचार-पत्रों का हवाई-सर्वेक्षण
कर लेते हैं
ये जो दिख रहे हैं
बहुरूपिया हैं, इनके
इनके ड्राईंगरूम मे सजकर बैठा गाँव
शहर को अतीत मे पराजित कर चुका है
जुमले मौजूद हैं
बैनर लटके हैं
डायरी के हर पन्ने मे नारेबाज़ी है
अजीबोगरीब भाषा मौजूद है
प्रेम का चिन्तन है
पिकनिक मौजूद है
उनके ग़रीबख़ाने मे
यातनाएँ, हत्याएँ और करुणा
समेटकर डस्टबीन मे फेंक दी गई हैंं