भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ये तेरा यूं मचलना क्या / गौतम राजरिशी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ये तेरा यूँ मचलना क्या
मेरे दिल का तड़पना क्या

निगाहें फेर ली तू ने
दिवानों का भटकना क्या

सुबह उतरी है गलियों में
हर इक आहट सहमना क्या

हैं राहें धूप से लथ-पथ
कदम का अब बहकना क्या

दिवारें गिर गयीं सारी
अभी ईटें परखना क्या

हुआ मैला ये आईना
यूँ अब सजना-सँवरना क्या

है तेरी रूठना आदत
मनाना क्या बहलना क्या