भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ये तो जब मुम्किन है / फ़राज़

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


ये तो जब मुम्किन है ...<ref>संभव</ref>

फिर चले आए हैं हमदम ले के हमदर्दी के नाम
आहू-ए-रम-ख़ुर्दा<ref>बिदका हुआ, भागा हुआ</ref> की वहशत<ref>भय, बिदक</ref> बढ़ाने के लिए
मेरे दिल से तेरी चाहत को मिटाने लिए

छेड़कर अफ़साना-ए-नाकामी-ए-अहले-वफ़ा<ref>वफ़ादारों की असफलता की कथा</ref>
तेरी मजबूरी<ref>विवशता</ref> के क़िस्से <ref>कहानियाँ</ref> मेरी बरबादी की बात
अपनी-अपनी सरगुज़िश्तें <ref>घटनाएँ</ref> दूसरों के तजरिबात<ref>अनुभव</ref>

उनको क्या मालूम लेकिन तेरी चाहत के करम
मेरी तन्हाई<ref>एकांत</ref> के दोज़ख़<ref>नर्क</ref> मेरी जन्नत<ref>स्वर्ग</ref> के भरम<ref>भ्रम</ref>
तेरी आँखों का वफ़ा -आमेज़<ref>वफ़ादारी से परिपूर्ण</ref> अफ़सुर्दा-ख़याल<ref>दु:खी विचार</ref>

काश! इतना सोच सकते ग़मगुसारों<ref>ढारस बँधाने वालों </ref> के दिमाग़
ये तो जब मुम्किन <ref>संभव</ref> है बुझ जाए हर आँसू हर चराग़
ख़ुद को उनमें दफ़्न <ref>गाड़ दूँ</ref> कर दूँ भूल जाऊँ अपना नाम

शब्दार्थ
<references/>