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ये तो माना क़ाबिले-अज़मत है परवाने की ख़ाक / रतन पंडोरवी

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ये तो माना क़ाबिले-अज़मत है परवाने की ख़ाक
काबाए-अहले-वफ़ा है मेरे वीराने की ख़ाक

हज़रते-वाइज़ इधर भी गौर फरमाइए ज़रा
छानती फिरती है जन्नत मेरे मयखाने की ख़ाक

इश्क़ का ये हुस्न है मिट जाये बज़्मे-हुस्न में
दे रही है ये सबक़ उड़-उड़ के परवाने की ख़ाक

ये कुदूरत ये तनफ़्फ़ुर ज़िन्दगी के साथ है
एक हो जाती है मिल कर अपने बेगाने के ख़ाक

हुस्न की हस्ती सरासर इश्क़ पर मौक़ूफ है
शमअ को भी ज़िन्दगी देती है परवाने की ख़ाक।