भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ये दर्स भी हुआ हमें हासिल कभी-कभी / शाहिद मिर्ज़ा शाहिद
Kavita Kosh से
ये दर्स भी हुआ हमें हासिल कभी-कभी
आसान ख़ुद ही होती है मुश्किल कभी-कभी
कश्ती को इक उमीद ने आकर बचा लिया
आता रहा नज़र मुझे साहिल कभी-कभी
राह-ए-जनून-ऐ-शौक में पीछे जो रह गई
मुझको पुकारती है वो मंज़िल कभी-कभी
इस ख़ौफ़ से मैं बज्म में हँसने से डर गया
रोयेगा खिल्वतों में मेरा दिल कभी-कभी
शाहिद ये राज क्या है कि मेरे मजार पर
आता है अश्कबार वो क़ातिल कभी-कभी