भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ये दिन आए / श्यामसुन्दर घोष

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ये दिन आए ।

धूप करूँ नीलाम
न कोई बोली बोले,
आस-पास सूना-सूना
सन्नाटा डोले,
हवा हाँक दे,
कोई नहीं तनिक पतियाए ।

रंग-बिरंगे फूलों का
बाज़ार लगाऊँ,
और शाम तक कुछ न
बेच पाऊँ, पछताऊँ
देखे दुनिया,
ताना मारे हँसी उड़ाए ।

अब गीतों के होठों-कंठों
बसी उदासी,
सपने कवाँरे ही घर छोड़
हुए संन्यासी,
युग बीते
कलियों पर नहीं मधुप मँडराए ।

ये दिन आए ।