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ये दुनिया है भूलभुलैया / 'सज्जन' धर्मेन्द्र

ये दुनिया है भूलभुलैया
रची भेड़ियों ने
भेड़ों की ख़ातिर

पढ़े-लिखे चालाक भेड़िये
गाइड बने हुए हैं इसके
ओढ़ भेड़ की खाल
जिन भेड़ों की स्मृति अच्छी है
उन सबको बाग़ी घोषित कर
रंग दिया है लाल

फिर भी कोई राह न पाये
इस डर के मारे
छोड़ रखे मुख़बिर

भेड़ समझती अपने तन पर
ख़ून-पसीने से खेती कर
उगा रही जो ऊन
जब तक राह नहीं मिल जाती
उसे बेचकर अपना चारा
लायेगी दो जून

पर पकते ही फ़सल
भेड़िये दाम गिरा देते
हैं कितने शातिर

ऊन मांस की ये सप्लाई
ऐसे ही पीढ़ी दर पीढ़ी
सदा रहे कायम
भाँति भाँति का नशा बाँटकर
इसीलिए सारी भेड़ों को
किया हुआ बेदम

सब तो साथ भेड़ियों के हैं
तंत्र और संसद
मस्जिद और मंदिर